Monday 19 December 2011

गोवा मुक्ति संग्राम के पचास बरस

किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि ...  तारीख कभी खून को पानी नहीं लिखता . लेकिन लग रहा है यू पी ए सरकार इस कहावत को नहीं मानती. तभी तो गोवा मुक्ति संग्राम पर प्रणब दा ने लोकसभा में जो बयान दिया वो हकीक़त से कोशो दूर है. गोवा मुक्ति संग्राम की बात हो और समाजवादियों के संघर्ष को भुला दिया जाए. तो ये सच छिपाने के लिए आँख मुंदने जैसा है . डॉ राम मनोहर लोहिया , मधुलिमये , जमुनालाल शाश्त्री और सरयू राय के साथ ही देशभर के कई समाजवादी साथियों ने गोवा मुक्ति के लिए संघर्ष किया. उन्हें याद किया जाना चाहिए . इसे मुलायम सिंह , शरद यादव और लालू यादव ने भी दुहराया. लेकिन यू पी ए सरकार आँख मूंदकर बैठी है. इतिहास में छेड़ छाड़ की सजा उन्हें ज़रूर मिलेगी . जो मुल्क अपने महा पुरूषों  को याद नहीं करता और जो अपने धरोहर को भूल जाते है . उनकी विरासत भी बहुत आगे नहीं जाती . हम ये भी नहीं कहते की गोवा मुक्ति संघर्ष की लड़ाई केवल समाजवादियो ने लड़ी थी . इस लड़ाई अलग अलग विचारधाराओ को मानने वाले कई लोग थे जो देश के अलग अलग हिस्सों को रेप्रेसेंत करते थे . उनके भी बलिदान को कम करके नहीं आँका जा सकता .
ऐसा नहीं है की पहले इस तरह के उदहारण नहीं है . लेकिन इस बार का जख्म ज़रा ताज़ा है. कांग्रेस नीत सरकारों ने बहुत बाद में आज़ादी की पहली लड़ाई की हकीक़त को स्वीकार किया था . और बहुत बाद में सिपाही विद्रोह और पहले स्वाधीनता संग्राम की आड़ में छुपाती रही . सरकार की उदासीनता का आलम ये है की आज भी संपूर्ण  भारत के अंतिम बादशाह और पहले स्वाधीनता संग्राम के नेता बहादुर शाह ज़फर अपने मुल्क में समाधी के लिए ज़मीन ढूंड रहे है.  इतिहास के साथ जितनी छेड़ छाड़ कांग्रेस ने की है . शायद दुनिया के किसी मुल्क में किसी ने भी की होगी . पर अब समय बदला है . सूचना क्रांति का दौर है और सरकार का झूठ छिपने वाला नहीं है. जैसा की शरद यादव ने कहा,  कि डॉ लोहिया जैसो को तारीफ कि ज़रूरत नहीं उनका बलिदान देश जनता है . पर अफ़सोस इतिहास से छेड़ छाड़ कि है जिसे बर्दास्त नहीं किया जायेगा . 
-राजेश कुमार ( लेखक टीवी पत्रकार है)

Sunday 18 December 2011

गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे


एक बड़ा झटका अदम साहब नहीं रहे . जिस क्रांति को लिखते रहे बांचते रहे उसी अंदाज़ में चल दिए . पहली बार जब पढ़ा था तब से मुरीद हूँ . बिलकुल आग थी उनकी लेखनी . तब से कितनो को पढाया कितनो को सुनाया. अभी भी कई कतरने है उनकी कविताओं की. एक सच्ची कलम खामोश हो गई . अंत में यही कहना है.


धूल जैसे कदम से मिलती है,

ज़िन्दगी रोज़ हमसे मिलती है.

ऐसे लोग कितने है दुनिया में

जिन्हें शोहरत  कलम से मिलती है.



क्रांतिवीर कवी को शत शत नमन .



अदम साहब की एक रचना


गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे


जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?


जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे ?


तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ? 

Thursday 15 December 2011

हकीकत से मुंह न छुपाए टीम अन्ना


बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि किसी की एक आंसू पर हज़ारों दिल धड़कते हैं, किसी का उम्र भर रोना यूं ही बेकार जाता है. अन्ना हजारे और उनकी टीम ने जो आंदोलन खड़ा किया वो एक सशक्त और मजबूत लोकपाल बिल के लिए है। इसने भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन को मजबूत किया है इसमें कोई दो राय नहीं । इस आंदोलन के बाद लोग सड़कों पर आए, सोई हुई क़ौम जाग गई , और सरकार की कुम्भकर्णी नींद टूटी इसमें भी कोई शक नहीं है। नई पीढ़ी पहली बार इतनी तादाद में सड़कों पर उतरी , सरकार के खिलाफ नारे लगाए और सरोकारों से जुड़ी ये भी आंदोलन की उपलब्धि ही है। कुल मिलाकर अरसे से जो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कड़े कानून बनाने की मांग चल रही थी उसे अन्ना हजारे के आंदोलन ने मजबूत किया।

लेकिन सवाल है कि लोकपाल को लेकर इतना हो हल्ला क्यों मचाया गया। क्या डेढ़ सौ साल पुरानी कांग्रेस घबरा गई या उसकी कोई सोची समझी रणनीति है। क्या लोकपाल कानून आने से चमत्कार हो जाएगा। क्या देश में पहले से मौजूद कई कानूनों में एक लोकपाल जुड़ जाएगा तो परिवर्तन हो जाएगा । नहीं लोकपाल की लड़ाई भ्रष्टाचार की निर्णायक लड़ाई नहीं है।


ये आंदोलन महज सरकार को एक चेतावनी भर हो सकती है परिवर्तन का इशारा नहीं हो सकता। क्योंकि हमारा मानना है कि दोष व्यवस्था का है। और वो व्यवस्था जो उदारीकरण के बाद से लगातार ही जल, जंगल और ज़मीन लूटने में लगी है। पहले उसे रोकना होगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खुली लूट रोकनी होगी। यूरोपिय मॉडल को दिन रात परोस रहे अश्लील टीवी के कार्यक्रमों में सुधार करना होगा। और पश्चिमी देशों के अंधाधुंध अनुकरण को रोकना होगा। राजनीति की आड़ में पनप रहे औधोगिक घरानों की लूट को बंद करा होगा। और पूंजी की राजनीति पर अंकुश लगाना होगा। संशाधनों को उन तक पहुंचाना होगा जो इसके वाजिब हक़दार हैं। टीम अन्ना चाहे तो इसमें सहयोग कर सकती है। हमारा ये मानना है, कि चाहे कितना भी महंगा बीज हो और चाहे कितना भी खाद डाला जाए फसल तब तक नहीं होगी जब तक ज़मीन सही नहीं की जाएगी। इसलिए व्यवस्था जब तक नहीं बदली जाएगी  तब तक लोकपाल कोई असर नहीं कर पाएगा।

एक और बात जो सबसे महत्वपूर्ण है वो ये है कि टीम अन्ना इस देश की सामाजिक हकीकत को स्वीकार करें। और देश का जो भौगोलिक और सामाजिक चेहरा है उसे नज़रअंदाज ना करे। आंदोलन और लोकपाल दोनों में पिछड़ों और दलितों की  पूरी भागीदारी दे। साथ ही सभी प्रदेशों से लोगों को हिस्सेदारी दे। इसके अलावा आदिवासियों और महिलाओं को भी उनकी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। लोकपाल कानून में उनके अधिकारों की बात भी होनी चाहिए। जो अभी तक टीम अन्ना की जुबान या कार्यशैली में नहीं दिखती।


राजेश कुमार ( लेखक टीवी पत्रकार हैं )


Friday 9 December 2011

प्रत्यक्ष पूंजी निवेश : एक सच, तीन झूठ : ले. सुनील

विदेशी कंपनियों को खुदरा व्यापार में इजाजत देने के बारे में उठे विवाद पर सफाई में प्रधानमंत्री ने कहा है कि यह फैसला बहुत सोच-समझकर किया गया है। प्रधानमंत्री की इस बात में सचाई है। इसकी तैयारी बहुत दिनों से चल रही थी। कैबिनेट सचिवों की समिति ने दो महीने पहले ही इसकी सिफारिश कर दी थी। महंगाई पर जब हल्ला हो रहा था, तभी मोंटेक सिंह अहलूवालिया, रंगराजन और कौशिक बसु ने कह दिया था कि इसका इलाज खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों को बढ़ावा देने में ही निहित है। भारत के प्रधानमंत्री और वाणिज्य मंत्री काफी पहले से दावोस, न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में वायदा करते आ रहे थे कि वॉलमार्ट के लिए भारत के दरवाजे खोले जाएंगे। जिस दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की बात वे करते आए हैं, यह उसका एक प्रमुख हिस्सा है।
वैश्वीकरण-उदारीकरण-कंपनीकरण के जिस रास्ते पर हमारी सरकारें चल रही हैं, यह उसका अगला पड़ाव है। इसलिए इस बारे में विपक्ष का विरोध अधूरा एवं खोखला है। जहां और जब वे सत्ता में रहे, उन्होंने भी विदेशी पूंजी को दावत दी। हर मुख्यमंत्री उन्हें न्योता देने विदेश यात्राओं पर गया। नीतीश कुमार जब देश के कृषि मंत्री थे, तो उन्होंने राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा की, जिसमें खुलकर खेती में विदेशी कंपनियों को आगे बढ़ाने का नुसखा पेश किया गया। इसके खिलाफ हुंकार भरने वाले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने देशी-विदेशी कंपनियों की मिजाजपुर्सी करने के लिए छह-सात ग्लोबल इंवेस्टर्स मीट आयोजित की। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में विदेशी कंपनियां प्यारी और खुदरा व्यापार में बुरी, खुदरा व्यापार में भी रिलायंस-भारती-आईटीसी अच्छी और वॉलमार्ट बुरी-ऐसा मानने वालों के अंतर्विरोधों से ही उनका विरोध कमजोर हो जाता है।
भारतीय बाजारों में विदेशी घुसपैठ की शुरुआत तभी हो गई थी, जब भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना और कुछ वर्षों बाद एक झटके में 1,423 वस्तुओं का बाजार विदेशी वस्तुओं के लिए खोला गया। भारत के थोक व्यापार, एक ब्रांड के व्यापार और कृषि व्यापार को विदेशी कंपनियों के लिए खोला गया था, तभी स्पष्ट हो गया था कि अगला नंबर खुदरा व्यापार का है। विडंबना यह है कि इस अवधि में गैर-कांग्रेसी सरकारें भी रहीं।
दृष्टिदोष से ग्रस्त हमारे शासकों एवं विशेषज्ञों को इतना भी दिखाई नहीं देता कि पश्चिमी देशों और भारत की परिस्थितियों में भारी फर्क है। वहां भी वॉलमार्ट ने छोटे दुकानदारों को बेदखल किया, किंतु उनकी संख्या बहुत कम थी और वे खप गए। भारत में तो विशाल श्रमशक्ति है। खेती और उद्योग के बाद व्यापार ही इस देश में सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करता है। एक तरह से घोर बेरोजगारी के इस युग में जब कहीं नौकरी नहीं मिलती, तो एक किराना दुकान, चाय या पान की दुकान ही रोजी-रोटी का जरिया बनती है। अब इसी पर हमला हो रहा है।
अमेरिका का अनुभव है कि वॉलमार्ट का एक मॉल खुलता है, तो उसकी 84 फीसदी आय स्थानीय छोटे व्यापारियों का धंधा हड़पकर ही होती है। यह भी तय है कि बाजार के वॉलमार्टीकरण से स्थानीय छोटे-छोटे उत्पादकों का धंधा मारा जाएगा। सरकार ने महज इतनी ही शर्त लगाई है कि 30 प्रतिशत आपूर्ति छोटे उद्योगों से ली जाएगी, किंतु ये छोटे उद्योग देश या दुनिया में कहीं के भी हो सकते हैं। अब यह भी साफ हो रहा है कि पूरे देश में अतिक्रमण हटाने या नगरों को सुंदर बनाने के नाम पर फुटपाथ विक्रेताओं, गुमटी-हाथठेला विक्रेताओं आदि को हटाने की जो मुहिम चलती रही है, वह शायद मॉलों के लिए ही रास्ता साफ करने की कार्रवाई थी।
प्रधानमंत्री का दूसरा झूठा दावा किसानों को फायदा पहुंचाने का है। खुदरा व्यापार में रिलायंस फ्रेश, चौपालसागर, हरियाली आदि के रूप में बड़ी देशी कंपनियों की शृंखला तो पहले ही काम कर रही है। क्या इससे भारत के किसानों को बेहतर दाम मिले? क्या खेती का संकट दूर हुआ? यदि कुछ बेहतर दाम मिलें भी, तो लागतें भी बढ़ जाती हैं और कांट्रेक्ट खेती के जरिये किसान कंपनियों पर बुरी तरह निर्भर हो जाता है। इस बात की भी पूरी आशंका है कि किसानों की उपज खरीदने के लिए कंपनियां आ चुकी हैं, यह बहाना बनाकर सरकार समर्थन-मूल्य पर कृषि उपज की खरीद बंद कर दे। इसके लिए इन विदेशी कंपनियों का दबाव भी होगा। भारतीय खेती के ताबूत पर यह आखिरी कील होगी।
प्रधानमंत्री का तीसरा झूठ यह है कि इससे व्यापार में बिचौलिये खत्म होंगे और महंगाई कम होगी। यह जरूर है कि छोटे-छोटे लाखों बिचौलियों की जगह चंद बहुराष्ट्रीय बिचौलिये ले लेंगे, जिनकी बाजार को नियंत्रित करने व उस पर कब्जा करने की अपार ताकत होगी। क्या अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को अर्थशास्त्र के इस सामान्य नियम को याद दिलाना होगा कि एकाधिकारी प्रवृत्तियां बढ़ने से कीमतें बढ़ती हैं, कम नहीं होतीं? सच तो यह है कि ये बड़े बहुराष्ट्रीय व्यापारी किसानों, उत्पादकों, उपभोक्ताओं सबका शोषण करेंगे तथा लूट का मुनाफा अपने देश में ले जाएंगे।
यह घोर पतन का युग है। यह ज्यादा खतरनाक भ्रष्टाचार है। इसके खिलाफ कोई जेपी आंदोलन, कोई अरब वसंत या कोई वॉलस्ट्रीट कब्जा आंदोलन चलाने का वक्त आ गया है। किंतु ऐसे किसी भी आंदोलन को नवउदारवाद और विकास के मॉडल पर भी प्रहार करना होगा, तभी उसकी विश्वसनीयता और गहराई बन पाएगी।
(saabhar)

Monday 28 November 2011

जेपी के वक्त में लिखी धर्मवीर भारती की एक कविता

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है
 
शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाये
 
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !
 
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?


आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…


तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की
 
क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें
अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ? 


हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए
 
नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।
ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी 
कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो
इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए
 
बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में 


और 
 सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से बहा, 
वह पुँछ जाए
बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं

Thursday 24 November 2011

Rammanohar Lohia

Born 23 March 1910
Akbarpur, Uttar Pradesh, British India
Died 12 October 1967 (aged 57)
New Delhi, India
Nationality Indian
Education B.A.
Alma mater Calcutta University
Known for Quit India Movement
Parents Hari Lal and Chanda

लोहिया के विचार

लोहिया एक फ़िजा थे, साथ ही एक अनोखी व गर्म फ़िजा के निर्माता भी। वह फिजा कैसी थी ?सम्पूर्ण आजादी, समता, सम्पन्नता, अन्याय के विरुद्ध जेहाद और समाजवाद की फ़िजा।आज वह फ़िजा भी नहीं है, लोहिया भी नहीं है।लेकिन दूसरों के लिए जीने वाला कभी मरता नहीं। लोहिया आज भी अपने विचारों में जीवित है। लगन, ओजस्विता और उग्रता–प्रखरता को जब तक गुण माना जायेगा, लोहिया के विचार अमर रहेंगे।मूलतः लोहिया राजनीतिक विचारक, चिंतक और स्वप्नद्रष्टा थे, लेकिन उनका चिन्तन राजनीति तक ही कभी सीमित नहीं रहा। व्यापक दृष्टिकोण, दूरदर्शिता उनकी चिन्तन-धारा की विशेषता थी। राजनीति के साथ-साथ संस्कृति, दर्शन साहित्य, इतिहास, भाषा आदि के बारे में भी उनके मौलिक विचार थे। लोहिया की चिन्तन-धारा कभी देश-काल की सीमा की बन्दी नहीं रही। विश्व की रचना और विकास के बारे में उनकी अनोखी व अद्वितीय दृष्टि थी। इसलिए उन्होंने सदा ही विश्व-नागरिकता का सपना देखा था। वे मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व नागरिकता का सपना देखा था। वे मानव-मात्र को किसी देश का नहीं बल्कि विश्व का नागरिक मानते थे। उनकी चाह थी कि एक से दूसरे देश में आने जाने के लिए किसी तरह की भी कानूनी रुकावट न हो और सम्पूर्ण पृथ्वी के किसी भी अंश को अपना मानकर कोई भी कहीं आ-जा सकने के लिए पूरी तरह आजाद हो।लोहिया एक नयी सभ्यता और संस्कृति के द्रष्टा और निर्माता थे। लेकिन आधुनिक युग जहाँ उनके दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सका, वहीं उन्हें पूरी तरह आत्मसात भी नहीं कर सका। अपनी प्रखरता, ओजस्विता, मौलिकता, विस्तार और व्यापक गुणों के कारण वे अधिकांश में लोगों की पकड़ से बाहर रहे। इसका एक कारण है-जो लोग लोहिया के विचारों को ऊपरी सतही ढंग से ग्रहण करना चाहते हैं, उनके लिए लोहिया बहुत भारी पड़ते हैं। गहरी दृष्टि से ही लोहिया के विचारों, कथनों और कर्मों के भीतर के उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है, जो सूत्र लोहिया-विचार की विशेषता है, वही सूत्र ही तो उनकी विचार-पद्धति है।लोहिया गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के अखण्ड समर्थक थे, लेकिन गाँधीवाद को वे अधूरा दर्शन मानते थे: वे समाजवादी थे, लेकिन मार्क्स को एकांगी मानते थे: वे राष्ट्रवादी थे, लेकिन विश्व-सरकार का सपना देखते थे: वे आधुनिकतम विद्रोही तथा क्रान्तिकारी थे, लेकिन शांति व अहिंसा के अनूठे उपासक थे।लोहिया मानते थे कि पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी होकर भी दोनों एकांगी और हेय हैं। इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दे सकता है। फिर वे समाजवाद को भी प्रजातन्त्र के बिना अधूरा मानते थे। उनकी दृष्टि में प्रजातन्त्र और समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक-दूसरे के बिना दोनों अधूरे व बेमतलब हैं।लोहिया ने मार्क्सवाद और गांधीवाद को मूल रूप में समझा और दोनों को अधूरा पाया, क्योंकि इतिहास की गति ने दोनों को छोड़ दिया है। दोनों का महत्त्व मात्र-युगीन है। लोहिया की दृष्टि में मार्क्स पश्चिम के तथा गांधी पूर्व के प्रतीक हैं और लोहिया पश्चिम-पूर्व की खाई पाटना चाहते थे। मानवता के दृष्टिकोण से वे पूर्व-पश्चिम, काले-गोरे, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े राष्ट्र नर-नारी के बीच की दूरी मिटाना चाहते थे।लोहिया की विचार-पद्धति रचनात्मक है। वे पूर्णता व समग्रता के लिए प्रयास करते थे। लोहिया ने लिखा है- ‘‘जैसे ही मनुष्य अपने प्रति सचेत होता है, चाहे जिस स्तर पर यह चेतना आए और पूर्ण से अपने अलगाव के प्रति संताप व दुख की भावना जागे, साथ ही अपने अस्तित्व के प्रति संतोष का अनुभव हो, तब यह विचार-प्रक्रिया होती है कि वह पूर्ण के साथ अपने को कैसे मिलाए, उसी समय उद्देश्य की खोज शुरू होती है।’’लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमों और क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षपाती थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वे सात क्रान्तियां थी।1 नर-नारी की समानता के लिए,2 चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ,3 संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए,4 परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए,5 निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए,6 निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए,7 अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये।इन सात क्रांतियों के सम्बन्ध में लोहिया ने कहा-‘मोटे तौर से ये हैं सात क्रांन्तियाँ। सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब नाइन्साफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये।’कर्म के क्षेत्र में अखण्ड प्रयोग और वैचारिक क्षेत्र में निरन्तर संशोधन द्वारा नव-निर्माण के लिए सतत प्रयत्नशील भी लोहिया का एक रूप है। जीवन का कोई भी पहलू शायद ही बचा हो, जिसे लोहिया ने अपनी मौलिक प्रतिभा से स्पर्श न किया हो। मानव-विकास के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी विचारधारा सबसे भिन्न और मौलिक रही है।लोहिया के विचारों में अनेकता के दर्शन होते हैं। त्याग, बुद्धि और प्रतिमा के साथ सूर्य की प्रखरता है तो वहीं चन्द्रमा की शीतलता भी है, वज्र की कठोरता है तो फूल की कोमलता भी है।लोहिया में सन्तुलन और सम्मिलन का समावेश है। उनका एक आदर्श विश्व-संस्कृति की स्थापना का संकल्प था। वे हृदय से भौतिक, भौगोलिक, राष्ट्रीय विश्व-संस्कृति की स्थापना का संकल्प था। वे हृदय से भौतिक, भौगोलिक, राष्ट्रीय व राजकीय सीमाओं का बन्धन स्वीकार न करते थे, इसलिए उन्होंने बिना पासपोर्ट ही संसार में घूमने की योजना बनाई थी और बिना पासपोर्ट वर्मा घूम आये थे। लोहिया को भारतीय संस्कृति से न केवल अगाध प्रेम था बल्कि देश की आत्मा को उन जैसा हृदयंगम करने का दूसरा नमूना भी न मिलेगा। समाजवाद की यूरोपीय सीमाओं और आध्यात्मिकता की राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर उन्होंने एक विश्व-दृष्टि विकसित की। उनका विश्वास था कि पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म का असली व सच्चा मेल तभी हो सकता है जब दोनों को इस प्रकार संशोधित किया जाय कि वे एक-दूसरे के पूरक बनने में समर्थ हो सकें।भारतमाता से लोहिया की माँग थी-‘‘हे भारतमाता ! हमें शिव का मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’’वास्तव में यह एक साथ एक विश्व-व्यक्तित्व की माँग है। इससे ही उनके मस्तिष्क और हृदय को टटोला जा सकता है।लोहिया का विश्वास था कि ‘सत्यम, शिवम् सुन्दरम के प्राचीन आदर्श और आधुनिक विश्व के ‘समाजवाद, स्वातंत्र्य और अहिंसा के तीन-सूत्री आदर्श जीवन का सुन्दर सत्य होगा और उस सत्य को जीवन में प्रतिष्ठित करने के लिए मर्यादा-अमर्यादा का, सीमा-असीमा का बहुत ध्यान रखना होगा। दुनिया के सभी क्षेत्रों की परम्पराओं द्वारा प्राप्त स्थल-कालबद्ध अर्द्धसत्यों को सम्पूर्ण बनाने की दृष्टि से संशोधन की चेष्टा लोहिया के जीवन भरी साधना रही है। आज की दुनियाँ की दो-तिहाई आबादी का दर्द और गरीबी व विपन्नता को जड़ से मिटाने और समस्त विश्व को युद्ध और विनाश की बीमारी से मुक्त करने का निदान लोहिया ने बताया। साथ ही वे यह भी जानते थे कि निदान सही होने पर भी संसार में फैला स्वार्थ और लोभ उसे मंजूर न करेगा। क्योंकि सौ फीसदी लाभ करने वाली दवा के पथ्य और कायदे-कानून बड़े निर्मम व कठोर होते हैं। लेकिन लोहिया ने इसकी भी कभी चिन्ता न की और उन्हें जो कुछ सत्य प्रतीत हुआ उसी का प्रचार करते रहे। उनका विश्वास था कि सही बात यदि बार-बार और बराबर कही जाय, तो धीरे-धीरे लोगों को उसे सुनने की आदत पड़ती जाएगी। इसीलिए दूसरों को अजीबोगरीब लगने वाली अपनी बातें वे निरन्तर, जीवनपर्यन्त कहते रहे।लोहिया में विचार, प्रतिभा और कर्मठता का अनोखा मेल था। राजनीतिक कर्मयोगी के रूप में उनकी देन का मूल्याकन अभी सम्भव नहीं है। शायद उसका अभी समय भी नहीं आया है, परन्तु जहाँ तक उनके विचारों व सिद्धान्तों की बात है, उनके साथ भी वही हुआ, जो विश्व की लगभग सभी महान प्रतिभाओं के साथ होता चला आया है। ऐसे लोग, जो भी विचार और कल्पनाएँ पेश करते हैं, साधारण लोगों में उनके महत्त्व का प्रचार व ज्ञान होने में समय लगता ही है, परन्तु आश्चर्य होता है, जब समकालीन राजनीतिक व विचारक भी बहुधा उनके विचारों का सही मूल्यांकन सही समय पर नहीं कर पाते और बाद में पछतावे की बारी आती है। उदाहरण के रूप में यदि सन् 1954 में लोहिया के कहने पर केरल के समाजवादी मन्त्रिमण्डल ने इस्तीफा दे दिया होता तो आज इस देश में समाजवादी आन्दोलन तो आदर्श बनता ही, साथ ही, दुनिया में भी एक नए आदर्श का निर्माण हुआ होता। इस तरह के अनेक अवसर पाए, जब लोहिया के बहुतेरे निकटतम साथी भी लोहिया द्वारा उठाए गए महत्त्वपूर्ण सवालों का मर्म नहीं समझ सके और चूके और पछताए।लोहिया की आत्मा विद्रोही थी। अन्याय का तीव्रतम प्रतिकार उनके कर्मों व सिद्धान्तों की बुनियाद रही है। प्रबल इच्छाशक्ति के साथ-साथ उनके पास असीम धैर्य और संयम भी रहा है। बार-बार जेल जाने-अपमान सहने के अप्रिय अनुभवों के बावजूद भी अन्याय के लिए अपनी दृढ़ता के कारण वे फिर-फिर ऐसे कटु अनुभवों को आमंत्रित कर के अंगीकार करते रहे। लोहिया ने खुद लिखा है-‘‘मुझे कभी-कभी ताज्जुब होता है कि एक तरह के निराधार अभियोग एक ही आदमी के विरुद्ध लगातार क्यों लगाए जाते हैं ? मेरे ऊपर दोष लगाने वालों की ताकत यही है कि वे भारतीय शासक वर्ग के खयालों के साथ हैं और मैं उसके बिल्कुल विरुद्ध। इसके अलावा मैंने भारतीय समाज की पुरानी बुनियादों के खिलाफ आवाज उठाई है और उन पर हमला किया है। जिसका नतीजा है कि मुझे देश की सभी स्थिर स्वार्थवाली और प्रभावशाली शक्तियों के क्रोध का शिकार बनना पड़ता है।’’शायद लीक पर चलना लोहिया के स्वभाव में न था। साथ ही वे प्रवाह के साथ भी कभी बने नहीं, बल्कि प्रचलित प्रवाह के उलटे तैरने के प्रयोग में उनके विचारों को प्रचार के लिए देश के अखबारों का भी सहयोग कभी नहीं मिला। उपेक्षा, भ्रामक प्रचार और मिथ्या लेखन द्वारा लोहिया के विचारों को दबाने की सदा कोशिश की गई, पर क्या यह संभव था कि इस प्रकार उनके विचारों को नष्ट किया जा सकता ? उनकी महान कृतियों को जब भुलाना असंभव हो जाता था तभी आंशिक रूप में उन्हें प्रकाशन मिलता था- सो भी कभी कभी सही रूप में नहीं, बल्कि तोड़-मरोड़ कर, अर्थ को अनर्थ करके। दूसरी ओर हर झूठ का बराबर खण्डन करते रहना तथा सफाई देना स्वाभिमानी लोहिया के स्वभाव के खिलाफ तो था ही .